मुझे बचा लो ईस ज़माने से
इन बेवफा प्रेमियों से
इन धोखेबाजो से,
थक गई हूँ मैं
प्यास सबकी बुझाते हुए,
कोई मेरी भी प्यास बुझा दे.
मदद के लिए सब आगे आते हैं
गन्दा करके जाते हैं
करोडो का चंदा खुद ही खा जाते हैं.
कंही सुख ना जावूँ मैं
ईस धरा से
रेगिस्तान कि तरह,
मैं नदी हूँ , प्यास बुझाती हूँ
कुछ मेरे लिए भी रहने दो
कंही मैं प्यास्सी ही ना रह जावूँ.
6 comments:
बहुत अच्छा लिखा है सर!
रूह के रिश्तों की गहराईयाँ तो देखिए
चोट लगती है हमारे और चिल्लाती है माँ
ओढ़ती है हसरतों का खुद तो बोसीदा कफ़न
चाहतों का पैरहन बच्चे को पहनाती है माँ
एक एक हसरत को अपने अज़्मो इस्तक़लाल से
आँसुओं से गुस्ल देकर खुद ही दफ़नाती है माँ
भूखा रहने ही नहीं देती यतीमों को कभी
जाने किस किस से, कहाँ से माँग कर लाती है माँ
http://pyarimaan.blogspot.com/2011/02/mother.html
बहुत सुंदर बात कही आप ने इस कविता मे धन्यवाद
Giri ji, sachmuch aapne laajwaab kar diya.
होली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं।
धर्म की क्रान्तिकारी व्यागख्याै।
समाज के विकास के लिए स्त्रियों में जागरूकता जरूरी।
जैसा बोएंगे,वैसा काटने को तैयार रहना चाहिए।
"नेक इंसान, एक दूसरे की अच्छे कामों मैं मदद करते हैं और बुराई से एक दूसरे को रोकते हैं."
http://pyarimaan.blogspot.com/2011/03/blog-post_28.html
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