काशिफ आरिफ जी क्या उलटी पुलटी बातें लिखते रहते है आप। इसका मतलब तो जो गैर मुष्लिम लोग अपने मुसलमान मित्रो के पास जाकर के ईदुल अज़हा मैं शरीक होते हैं वो भिखारी होते है।
http://qur-aninhindi.blogspot.com/2009/11/matters-compulsory-works-of-bakrid-eid.html
इसके अलावा बहुत से मज़ह्बों के पेशेवर भिखारी घर घर पहुंच कर गोश्त का अच्छा खासा ज़खीरा कर लेते हैं। इससे होता यह है कि कुर्बानी के गोश्त का एक बडा हिस्सा बेकार जगहों पर इस्तेमाल हो जाता है जिसकी वजह से वह गरीब और ज़रुरतमंद महरुम रह जाते हैं जो मांगने में शर्म महसुस करते हैं। आम मुसलमानों तक गोश्त पंहुचाने की ज़हमत से यह भिखारी बचा लेते हैं और अगर कुर्बानी करने वाले को गरीबों से हमदर्दी और मुह्ब्बत का जज़्बा ना हो तो बात और तकलीफ़ देने वाली हो जाती हैं। ईदुल अज़हा में छुपा हुऐ कुर्बानी के ज़ज़्बे का मकसद तो यह है कि इसका फ़ायदा गरीबों तक पंहुचें, उनको अपनी खुशी में शामिल करने का खास इंन्तिज़ाम किया जायें, ताकि उस एक दिन तो कम से कम उनको अपने नज़र अंदाज़ किये जाने का एहसास न हो और वह कुर्बानी के गोश्त के इन्तिज़ार में दाल चावल खाने पर मजबूर न हों।
1 comment:
गिरी जी,
मुझे आपकी अक्ल पर हंसी आ रही है और तरस भी आ रहा है.......अब ये सोच रहा हूं की पहले तरस खांऊ या पहले हंसु....
जनाबे मैनें भिखारियों की बात की है मेहमानों की नही.......
आपने कभी देखा है की किसी गैर-मुस्लिम मेहमान को कभी कच्चा गोश्त दिया गया है....कि घर जाकर पका लेना.....गैर-मुस्लिम को क्या कभी किसी मुस्लिम मेहमान को भी कच्चा गोश्त नही दिया जाता है.......
मैंने उन लोगों का ज़िक्र किया है जो घर-घर जाकर मांगते है और गोश्त जमा कर लेते है....
जनाब विवाद भी दिमाग से पैदा किये जाते है...जिनके पिछे वाजिब वजह होनी चाहिये....
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