बड़ा बेकार सा मुद्दा हैं, मगर हैं बड़े काम का। खाली बैठने से तो अच्छा हैं कुछ न कुछ किया जाये। और फिर मैंने सोचा इसी को उठाते हैं।
पुरुष सदियों से ही दीवाल प्रेमी रहा हैं। जरा सी जोर से लगी नहीं कि दीवाल खोजने का काम चालू हो जाता हैं। और बेचारे खोजे भी क्यों नहीं , जब से शहरीकरण हुआ हैं, पेशाब करने कि जगह ही ख़त्म हो गई हैं। सरकारी शौचालय तो ऐसे होता हैं जैसे कि वो इंसानों के लिए नहीं बल्कि मक्खियों और मच्छरो का पेशाब घर हो।
शहर में खुली जगह कम होती हैं। इस लिए दीवाल का सहारा लेना पड़ता हैं, वो भी ये देखकर कि कंही दीवाल पे कोई मंत्र वैगरह ( ये देखो गधा मूत रहा हैं या गधे के पुत इधर मत मूत) तो नहीं लिख हैं ना।
पुराने ज़माने में लोग पैंट कि जगह धोती या पायजामा पहना करते थे , उस समय लोग नीचे बैठ कर के पेशाब किया करते थे, लेकिन जमाना बदलता गया और लोग भी बदलते गए। अब हर जगह अंग्रेजी व्यस्था तो उपलब्ध हो नहीं सकती हैं, लेकिन आदत का क्या करे , पेशाब करेंगे तो खड़े हो कर के ही।
खैर क्या कर सकते हैं , सिवाय लिखने के। और बेचारी सरकार भी क्या कर सकती हैं, आबादी इतनी बढती जा रही हैं ।
लेकिन सबसे ज्यादा दिक्कत महिलावो को होती हैं।
15 comments:
वाकई में बहुत काम का मुद्दा उठाया है आपने तो....
what an idea sir ji
कुछ दिन और इन्तजार करो साथ में एक बोतल अथवा प्लास्टिक की पन्नी और बगल में कुछ गत्ते दबाकर चलना पड़ेगा, और गत्ते पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखना पडेगा की "मत देखो गधा मूत रहा है' :)
Sabse jyada dikkat Mahilawo ko hoti hai,
Godiyal Saheb kya aap apna Email Id De sakte hain
tkgiri1@gmail.com
सही कहा
:-)
गिरी साहब पोस्ट के लिए जो विषय आपने चुना उसी को ध्यान में रख कर पूछ रहा हूँ की आपके ब्लॉग पर जो छीटे दिख रहे हैं वो कहाँ से आए? :-)
जो भी हो जनाब नए रंग रूप और ३ डी लिखावट से ब्लॉग पर कई सारे चाँद लग गए हैं.
भाई ! आपका संदेसा मिला तो सोचा कि आपने आज ज़रूर कुछ काम की बात लिखी होगी और सचमुच आप मेरी उम्मीद पर खरे निकले। आपने डेली रूटीन का मुद्दा उठाकर भारतीय हिंदी लेखकों की एक बड़ी समस्या से रूबरू कराया है। वैसे यह समस्या तो सार्वजनीन है । आपको कोई बड़ा लेखकीय पुरस्कार मिले , मैं ऐसी कामना करता हूं।
दीवाल प्रेमी होना भी एक कला है, आर्ट है....न जाने कितने लोग एम एफ हुसैन जैसी कलाकारी ट्रेन के शौचालय, सार्वजनिक स्थान आदि पर दिखाते रहते हैं लेकिन उन्हें उसका उचित मूल्य नहीं मिलता।
सरकारों को चाहिए कि उनके लिए अलग से अनुसंधानात्मक दीवाल मनरेगा योजना के तहत खड़ी करे और उसका नाम होना चाहिए - 'कुटीर मूत्रायन कला अनुसंधान संस्थान' ....देखिए कैसे कैसे चित्र-विचित्र दीवाल पर बन कर सामने आते हैं :)
बहूत ही प्रेशरात्मक लेख है।
आपकी चिंता जायज है।
क्या करे भई!
जब जोर से लगती है तो अच्छों अच्छॊं से "कंटोल" नहीं होता।
हाहाहाहा....दीवार पर ही सारा तनाव निकालते हैं शहर में लोग..
दीवार
सही लिखा है अपने. मेरे ख़याल से दीवाल नहीं बल्कि दिवार होता है
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