मुझे बचा लो ईस ज़माने से
इन बेवफा प्रेमियों से
इन धोखेबाजो से,
थक गई हूँ मैं
प्यास सबकी बुझाते हुए,
कोई मेरी भी प्यास बुझा दे.
मदद के लिए सब आगे आते हैं
गन्दा करके जाते हैं
करोडो का चंदा खुद ही खा जाते हैं.
कंही सुख ना जावूँ मैं
ईस धरा से
रेगिस्तान कि तरह,
मैं नदी हूँ , प्यास बुझाती हूँ
कुछ मेरे लिए भी रहने दो
कंही मैं प्यास्सी ही ना रह जावूँ.
बहुत अच्छा लिखा है सर!
ReplyDeleteरूह के रिश्तों की गहराईयाँ तो देखिए
ReplyDeleteचोट लगती है हमारे और चिल्लाती है माँ
ओढ़ती है हसरतों का खुद तो बोसीदा कफ़न
चाहतों का पैरहन बच्चे को पहनाती है माँ
एक एक हसरत को अपने अज़्मो इस्तक़लाल से
आँसुओं से गुस्ल देकर खुद ही दफ़नाती है माँ
भूखा रहने ही नहीं देती यतीमों को कभी
जाने किस किस से, कहाँ से माँग कर लाती है माँ
http://pyarimaan.blogspot.com/2011/02/mother.html
बहुत सुंदर बात कही आप ने इस कविता मे धन्यवाद
ReplyDeleteGiri ji, sachmuch aapne laajwaab kar diya.
ReplyDeleteहोली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं।
धर्म की क्रान्तिकारी व्यागख्याै।
समाज के विकास के लिए स्त्रियों में जागरूकता जरूरी।
जैसा बोएंगे,वैसा काटने को तैयार रहना चाहिए।
ReplyDelete"नेक इंसान, एक दूसरे की अच्छे कामों मैं मदद करते हैं और बुराई से एक दूसरे को रोकते हैं."
ReplyDeletehttp://pyarimaan.blogspot.com/2011/03/blog-post_28.html