Pages

Wednesday, March 23, 2011

थक गई हूँ मैं प्यास सबकी बुझाते हुए, ------ तारकेश्वर गिरी.

मुझे बचा लो ईस ज़माने से
इन बेवफा प्रेमियों से
इन धोखेबाजो से,

थक गई हूँ मैं
प्यास सबकी बुझाते हुए,
कोई मेरी भी प्यास बुझा दे.

मदद के लिए सब आगे आते हैं
गन्दा करके जाते हैं
करोडो का चंदा खुद ही खा जाते हैं.

कंही सुख ना जावूँ मैं
ईस धरा से
रेगिस्तान कि तरह,

मैं नदी हूँ , प्यास बुझाती हूँ
कुछ मेरे लिए भी रहने दो
कंही मैं प्यास्सी ही ना रह जावूँ.

6 comments:

  1. बहुत अच्छा लिखा है सर!

    ReplyDelete
  2. रूह के रिश्तों की गहराईयाँ तो देखिए
    चोट लगती है हमारे और चिल्लाती है माँ

    ओढ़ती है हसरतों का खुद तो बोसीदा कफ़न
    चाहतों का पैरहन बच्चे को पहनाती है माँ

    एक एक हसरत को अपने अज़्मो इस्तक़लाल से
    आँसुओं से गुस्ल देकर खुद ही दफ़नाती है माँ

    भूखा रहने ही नहीं देती यतीमों को कभी
    जाने किस किस से, कहाँ से माँग कर लाती है माँ

    http://pyarimaan.blogspot.com/2011/02/mother.html

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर बात कही आप ने इस कविता मे धन्यवाद

    ReplyDelete
  4. जैसा बोएंगे,वैसा काटने को तैयार रहना चाहिए।

    ReplyDelete
  5. "नेक इंसान, एक दूसरे की अच्छे कामों मैं मदद करते हैं और बुराई से एक दूसरे को रोकते हैं."
    http://pyarimaan.blogspot.com/2011/03/blog-post_28.html

    ReplyDelete