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Sunday, December 6, 2009

आखिर कलंक मिट ही गया.

आखिर उसका वजूद ख़त्म हो ही गया कई सौ सालो से लोगे के सीने पर सांप लोट रहा था , करते भी क्यों नही हमारी चीज तो हमारी ही रहेगी , आज १८ साल पुरे हो गए लोगो को अपनी क़ुरबानी दिए हुए , जाने कितने गुमनामी मैं शहीद हो गए और जाने कितनो को चिता की लकड़ी भी नसीब नही हुई , आज का दिन बहुत ही शुभ दिन है उन कार सेवको की क़ुरबानी को याद करने के लिए, जिन्होंने अपनी परवाह करते हुए उस कलंक को ही मिटा दिया जिसे लेकर देश की जनता और देश की सरकार पिछले कई दसको से परेशान चल रही थीपरेशानी का सबसे बड़ा कारन भी हमारे देश की ही जनता है, लेकिन क्या कर सकते है, वही पुराना जुमला असहयोग , तुम्हारा हमारा , प्यार से कह कह करके थक गए तो क्या करते

मेरे कुछ देश वाशी यों को काफी तकलीफ हुई बाबरी मस्जीद गिर जाने से

2 comments:

  1. इस ब्लोग का नाम आपने बिल्कुल सही रखा है..."बेकार की बकवास"

    ये लेख इस बात का सबसे बडा उदाहरण है...

    1853 से चिल्ला रहे हो...राम मंदिर, जन्म भुमि....लेकिन आजतक साबित नहीं कर सके..और आगे भी नही कर सकते हो..क्यौंकि जब कुछ ऐसा है ही नही तो मिलेगा कैसे

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  2. निकट अतीत में ऐसी दो घटनायें हुई हैं। भारत में बाबरी मसजिद गिरा दी गई और अफ़गानिस्तान में बामियान की बुद्ध प्रतिमायें ध्वस्त कर दी गईं। दोनों ही मामलों में ध्वंसकर्ताओं की मानसिकता में कोई अन्तर नहीं था। 'जो उन्हें पसन्द नहीं उसे ध्वस्त होना ही होगा।'और साबितकरने की तो ज़रूरत ही क्या है? जिसकी लाठी, उसकी भैंस।

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