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Wednesday, November 3, 2010

देखा हैं हमने - पत्थर को रेत मैं बदलते हुए- तारकेश्वर गिरी.

बहुत सुनी हैं कहानियां बहुत पढ़ी हैं कवितायेँ ,
बदला जुग -बदला जमाना
देखा हैं हमने भी पत्थर को रेत में बदलते हुए।


अटल, अविरम्ब, स्थिर एक जड़ सा सदियों से
घमंडी, बिना झुके एक ही जगह पड़ा।
देखा हैं हमने भी पत्थर को रेत में बदलते हुए।


छोटी सी बुँदे बारिश कि ,हलकी सी हवा पहाड़ो कि,
साथ मिलती हैं जब, तो प्यार से कहती हैं,
देखा हैं हमने भी पत्थर को रेत में बदलते हुए।


तुम्हारी क्या औकात हैं ये अजनबी , तुम तो रेत भी नहीं बन सकते,
चार गज जमीन या चार कुन्तल लकड़ियाँ,
देखा हैं हमने भी पत्थर को रेत में बदलते हुए।

13 comments:

  1. देखा हैं हमने भी पत्थर को रेत में बदलते हुए।

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  2. जो स्थिर है,जड़ है,रेत बनना ही उसकी नियति है। नदियों को देखिए। चलायमान है। समुद्र को आकार देती है।

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  3. वादों से बहल जाते हैं ऐ दोस्त , बहलने वाले
    गिरी जी के शेर से दहल जाते हैं न दहलने वाले

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  4. सभी शेर बहुत सुंदर जी धन्यवाद

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  5. taarleshvri bhaayi bhut khub flsfaa aapne likha he shi khaa ptthr kitna hi skht ho ret men bdl hi jaata he yhi aek schchaayi he achchi dil ko chune vali post ke liyen mubark ho . akhtar khan akela kota rajsthaan

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  6. aaj hindi blogs ka bhraman kar raha hoon kaafi dino baad...achha lag raha hai :)


    http://pyasasajal.blogspot.com/2010/10/blog-post.html

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  7. बहुत सुंदर रचना ..... सभी पंक्तियाँ पसंद आयीं ...दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें

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  8. तुम्हारी क्या औकात हैं ये अजनबी , तुम तो रेत भी नहीं बन सकते.

    तारकेश्वर जी एक बहुत ही सुंदर रचना है

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  9. वाह! बेहद खूबसूरत.....

    सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं!

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  10. तुम्हारी क्या औकात हैं ये अजनबी , तुम तो रेत भी नहीं बन सकते,
    चार गज जमीन या चार कुन्तल लकड़ियाँ,
    देखा हैं हमने भी पत्थर को रेत में बदलते हुए।

    ..बहुत ख़ूबसूरत...ख़ासतौर पर आख़िरी की पंक्तियाँ....मेरा ब्लॉग पर आने और हौसलाअफज़ाई के लिए शुक़्रिया..

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  11. आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामाएं ...

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